आज के समय में ये दुनिया भले ही कितनी अपग्रेड हो गयी हो भले ही यहाँ टेक्नोलॉजी फॉरवर्ड हो या अब खेती भी मशीन से होने लगी लेकिन जो लोगो की सोच है वह अभी बेहद पुरानी और पिछड़ी हुई है। आज भी कई जगह आपको रंगभेद होता दिख जाएगा जाती में अंतर् देखने का नजरियां भी मिल जाएगा चाहे जितना मर्जी मॉडर्न बन जाओ लेकिन लोगो की सोच कभी नहीं बदलने वाली।अमेरिकी लेखक डेविड ब्रियॉन डेविस ने अपनी किताब ‘द प्रोबलम ऑफ स्लेवरी इन द एज ऑफ रिवॉल्यूशन’ में बताया है कि एक साल में 50 हजार से 70 हजार लोगों को दास बनाकर लाया जाता था. ये दास वो काले लोग होते थे जो अफ्रीकन देशों के छोटे शहरों में बसे थे और गरीब थे. आइये जानिए इस पूरी कहानी के बारे में।
जैसे की आप जानते है भारत में ये दास वगरह का कोई कल्चर नहीं लेकिन लोगो की मानसिकता इससे भी बुरी है। वर्ल्ड बैंक जनसंख्या के मुताबिक देश की 1 अरब 32 करोड़ जनसंख्या में 48 फीसदी महिलाएं हैं. देश की अधिक जनसंख्या ग्रामीण भारत में निवास करती है तो सबसे ज्यादा महिलाएं फेयर स्किन वाली या गोरी नहीं होंगी. क्योंकि ज्यादातर भारतीय गांवों में रहन सहन उस स्तर का नहीं है.वहीं दक्षिण भारत को ले लीजिए, सौ में से 80 फीसदी लोग ब्लैक हैं. इसके अलावा आदिवासी इलाकों में जाएंगे तो वहां धूप में काम करके औरतें काली हो गई हैं. इतना बड़ा आंकड़ा देखकर साफ तौर पर कहा जा सकता है कि देश में ब्लैक स्किन का मुद्दा यानी काले रंग वाली औरतों का मुद्दा छोटा नहीं है.
एक पुराणिक रिपोर्ट के मुताबिक जहाँ भारत में जहाँ पहले पश्चिमी देश 1770 से 1823 के काले महिलाओं को गुलाम बना रहे थे तो भारत में बरसों से काली महिलाओं का मानसिक शोषण हो रहा है.यही वजह है कि गोरे होने की क्रीम देश में सबसे ज्यादा बिकती हैं. क्योंकि देश में काला और गोरे का फर्क ज़ुबानी तौर पर नहीं मानसिक तौर पर है. देश में आज भी महिलाएं काले और गोरे होने की खाई पैदान होने से पुरुषों की सोच की गुलाम हैं. आपने कई बार सुना होगा, ‘फलाने की लड़की काली है.’ ये शब्द भारतीय स्लेंग है जो परंपरा बन चुका है. यही सोच महिलाओं का मानसिक शोषण बरसों से कर रही है.
आज भी आपने कई गांव या परिवारों में देखा होगा ये कहते हुए कि ‘हमारा लड़का गोरा है. लड़की गोरी और सुंदर होनी चाहिए’.जबकि ये शब्द भी एक स्लेंग की तरह लिया जाना चाहिए जो भारत में सुंदरता की अपने आप परिभाषा गढ़ रहे हैं. जबकि सुंदरता की कोई परिभाषा तो लिओनार्दो दा विंची भी नहीं दे पाए, जिन्होंने मोनालिसा की तस्वीर तक बना डाली थी.आखिर सुंदरता क्या है क्या ये एक गोरे रंग के चेहरे की है या कुछ और ऐसी मानसिकता के शब्द सुनकर देश में आज भी कई महिलाएं खुद को पिछड़ा समझती है।