इस समय जो हाल यूक्रेन का है वह किसी कंट्री का न हो बस अब जो बच्चे पढ़ाई करने को यूक्रेन गए हुए छात्र वापस देश लौट रहे हैं। वे छोटे -छोटे तिरंगे लहरा रहे हैं। वे ‘भारत माता की जय’ और ‘वंदे मातरम’ के नारे लगा रहे हैं। अपने प्राण भर बच जाने की राहत से देश भक्ति उमड़ पड़ती है। इस देश भक्ति और स्वार्थपरता के बीच के सीधे रिश्ते का इससे बेहतर उदाहरण नहीं मिल सकता। एक मित्र ने निराशा व्यक्त करते हुए कहा कि लौट रहे छात्रों में किसी ने यूक्रेन पर रूसी हमले का विरोध करना तो दूर उसपर दुःख भी जाहिर नहीं किया। किसी छात्र ने नहीं कहा कि ठीक है कि वह सुरक्षित है लेकिन उसे अपने साथ पढ़नेवाले, पढ़ानेवाले और काम करनेवाले यूक्रेनी लोगों की चिंता है।
सबके लिए नेहा होना कठिन है। लेकिन आदमी तो हुआ जा सकता है। दुनिया सिर्फ अपने लिए, अपने फायदे के लिए हो, मैं भर ज़िंदा रहूँ, तरक्की करूँ, बाकी दुनिया को जो होना है, हो, इसे परले दर्जे की खुदगर्जी कहा जा सकता है। वैसे भी कहा जाता है कि युद्ध ऐसा वक्त होता है जब आपके चरित्र की परीक्षा होती है।
लेकिन अब भारत से व्यापकता, उदारता जैसे गुणों की अपेक्षा नहीं की जाती। यूक्रेन के इस संकट के क्षण में इस मौके पर प्रधानमंत्री ने जो बयान दिया, वह भी क्षुद्र ‘देशभक्ति’ का उदाहरण था। जब युद्ध में फँसे भारतीय छात्रों को निकालने की अपील चारों तरफ से की जा रही थी, प्रधानमंत्री ने इस घड़ी में एक व्यावसायिक सन्देश दिया। उन्होंने अपने देश के ‘निजी क्षेत्र’ को एक तरह से इस संकट में अवसर दिखलाया: वे क्यों नहीं मेडिकल की शिक्षा में निवेश करते? हमारे बच्चों को पढ़ने को छोटे-छोटे देशों में क्यों जाना पड़ता है? क्यों उन्हें एक और भाषा सीखनी पड़ती है?
यह यूक्रेन के मित्र देश के प्रधानमंत्री का उस समय दिया गया बयान है जब यूक्रेन रूसी हमले का मुकाबला कर रहा है। जिस क्षण वह वीरता से अपनी रक्षा कर रहा है, उसे छोटा देश कहने के लिए ख़ासा संकरा दिल और दिमाग चाहिए। वैसे भी वह यूरोप का दूसरा सबसे बड़ा देश है। मेरे मित्र ने ठीक ही ध्यान दिलाया, वहाँ के लोग प्रायः द्विभाषी हैं। वह आपके हजारों युवकों को आपसे कम पैसे में शिक्षा दे रहा है। इस बयान में इन सबके लिए यूक्रेन को शुक्रिया अदा करने की जगह, यह कहने की जगह कि उसे हमारे युवकों को अवसर दिया, यह कि हमारी पूरी सहानुभूति उसके साथ है, प्रधानमंत्री ने एक वाणिज्यिक बयान दिया।